अग्नि हिन्दी में तत्सम के रूप में प्रयुक्त होने वाला शब्द है , जिसका अर्थ होता है आग । यह एक मूलभूत पदार्थ और भारतीय परम्परा की एक महत्वपूर्ण अवधारणा है । ऋग्वेद का आरंभ एक श्लोक से होता है , जिसमें अग्नि का आह्वान किया गया है । अग्नि सभी प्रकार की उर्जाओं का प्रतिनिधित्व करती है। पौराणिक कथाओं में अग्नि का उसी प्रकार मानवीकरण किया गया है , जिस प्रकार अन्य मूलभूत तत्वों - जल , पृथ्वी, वायु और आकाश का किया गया है । वह सामान रूप से सूर्यग्नि, तदितऔर पूजन के लिए प्रज्जवलित हवं कुंड की अग्नि है । यज्ञ की अग्नि के दिव्य मानवीकृत रूप में अग्नि देवताओं के मुख , नैवेद के वाहक और मानव वो दैवी शक्तियों के बीच संदेशवाहक है ।
आरंभिक ग्रंथों में अग्नि की व्याख्या रक्ताभवर्नी और एक दयालु और एक कठोर मुख वाले द्विमुखी देवता के रूप में की गयी है । उनकी तीन या सात जिह्वाएं , लपटों की तरह खड़े बल , तीन पैर और सात भुजाएं हैं , मेष (मेढा) उनका वहां है । ऋग्वेद में कई बार उन्हें शिव के पूर्ववर्ती रूद्र के रूप में वर्णित किया गया है ।
नित्य अग्निहोत्र को शास्त्रों में देवयज्ञ कहा गया है । देवयज्ञ का अभिप्राय है- देवताओं को उद्देश्य करके किये जोन वाली क्रिया । एक यज्ञकुण्ड के अन्दर अग्नि को आधार करके और उस अग्नि को प्रदीप्त करने के पश्चात् औषधि आदि से सिद्ध किये हुए हव्य पदार्थों की आहुति नित्य दी जाती है । इस तरह करने से देवता प्रसन्न हो जाते हैं अर्थात् शुद्ध हो जाते हैं ।
'अग्नि वै देवानां मुखम्' अग्नि देवताओं का मुख है । इसलिये अग्नि के अन्दर जो भी कोई पदार्थ डाला जाता है वह सभी देवताओं को प्राप्त हो जाता है । जैसे अपने मुख के अन्दर डाली हुई चीज सारे शरीर के अन्दर पहुँच जाती है उसी तरह अग्नि के अन्दर डाली हुई वस्तु जल, वायु, अन्तरिक्ष आदि देवताओं को आसानी से प्राप्त हो जाती है । यही है अग्नि का यथार्थ ...!

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